मेरा गांव । बचपन की यादें - शायरी | Village - Bachpan Ki Yaadein Shaayari Part 1
मेरा गांव । मेरे बचपन का गांव । बचपन की यादें - शायरी
जिस कुएं से पानी भरते थे,
ढह गया होगा,
नदी किनारे जो घरोंदा बनाया था,
बह गया होगा,
मेरे बचपन का गांव बहुत दूर,
रह गया होगा।
पंकज की उस गांव से
सारी यादें बुझ गयी हैं
अब हसरत मेरी की वहीँ कब्र बने
जब सांसें रुक गयी हैं।
मातृभूमि को छोड़ने पर मजबूर हो गए,
कामयाबी की माध में इतना चूर हो गए,
देखो न,
अपनी गांव की मिट्टी से कितना दूर हो गए।
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नहीं चाहिए मुझे शहर के वाटर पार्क
और न उनके बनावटी झूले,
आज चाहिए वह गांव के आम का पेड़
जो हमें पुकारे,
अपनी डाल ऊँची करे औ' बोले - आ छू ले।
चकाचौंध के शहरी समंदर में
मैं ऐसा बह गया,
पालक झपकते ही देखा पंकज ने गांव,
दूर कहीं, किसी किनारे पर रह गया।
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बचपन की यादें - शायरी | Bachpan Ki Yaadein Shayari - Part 2
आज कल के जन्मदिन की
आलीशान बड़ी-बड़ी पार्टियां भी,
खोखली सी लगती हैं
बचपन की समोसे, नमकीन और दो टाफियों से भरी
उस कागज़ की छोटी-सी गोल प्लेट के सामने।
आज अचानक वो कॉपियां याद आईं,
जिनके पन्ने फाड़कर हम जहाज़ बनाया करते थे।
उन्हीं के सहारे फिर,
कभी पानी में तैरते,
तो कभी आसमान में उड़ जाया करते थे।
बचपन के इंद्रधनुष,
प्यारी गौरैया और तारे,
जाने कहां अब चले गए वे सारे ?
होली पर रंग लगाते थे,
दिवाली पर दीप जलाते थे,
अब तो ये त्यौहार हमें सताते हैं,
बचपन के दिन याद दिलाते हैं।
अब हल्की सी चोट से
रो देते हैं वो,
जो बचपन में ऊंचे ऊंचे पेड़ों से
गिरते ही संभल जाते थे।
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