वसंत का मौसम | ओ बसंत ! कहां हो तुम ? Oh Basant Kahaan Ho Tum ?

वसंत का मौसम | ओ बसंत ! कहां हो तुम ? Oh Basant Kahaan Ho Tum ?

वसंत का मौसम | ओ बसंत ! कहां हो तुम ? Oh Basant Kahaan Ho Tum ?


मैं बचपन से ही इस उपमहाद्वीप की प्राकृतिक विविधता से जुड़ा रहा हूं। जब से मैंने इस दुनिया को पहचानना शुरू किया, वह मुझे नाना प्रकार के पहाड़ों, नदियों, नालों और पेड़ पौधों से भरी दिखाई दी। मौसम ने मुझे अपने विविध रूपों में आकर्षित किया। एक बालक के रूप में मैं प्रकृति के हर बदलाव में पूरे उत्साह के साथ शामिल होता रहा हूं। सर्दी के मौसम में अगर हम बर्फ की मूर्तियां और घरौंदे बनाया करते थे तो बसंत में हम जंगल में घूम रहे होते थे और वहां से विभिन्न प्रकार की वनस्पतियां इकट्ठा करने में मशगूल हो जाया करते थे। स्कूल में पीले परिधान पहनकर प्रकृति और विद्या की देवी सरस्वती के अभिवादन की तैयारियां शुरू कर देते थे, लेकिन आज यह चिंता का विषय है कि हम प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं। प्रकृति के सबसे खूबसूरत मौसम बसंत से अलग होते जा रहे हैं। बसंत आने की आहट भी कहीं सुनाई नहीं देती। सर्दी जैसे ही हल्की होने लगती है और कॉरिडोर से कहीं धूप की गमक का एहसास होता है तो मन सोचने लगता है कि क्या बसंत आ गया ? इस संदर्भ में मुझे अंग्रेजी कवि पी.बी. शैले की यह पंक्ति याद आती है "ओ विंड इफ़ विंटर कम्स, कैन स्प्रिंग बी फार बिहाइंड।"



निश्चित ही एक उम्मीद है कि यदि यह हवा, यह धूप सर्दी बीतने के संकेत दे रही है तो बसंत भी आएगा। यह उम्मीद नए जीवन और बदलाव के संकेत को व्यक्त करती है। कवि सुमित्रानंदन पंत जी ने जिस तरह से बसंत का अभिवादन किया है, वह मुझे सदा आकृष्ट करता रहा है। वे कहते - "लो ! चित्र शलभ सी पंख खोल उड़ने को है आतुर घाटी।"

यहां आतुरता भरा मौसम आता है और हमारी आंखों से क्षेत्र की तरह गुजर जाता है।

बसंत के प्रति हमारा लगाव, हमारी उत्सुकता क्यों खत्म होती जा रही है, यह मेरे लिए ही नहीं, इस पूरे जीवन परिवेश के लिए एक चिंता का विषय है। क्या यह सच नहीं है कि इस देश के औद्योगिक विकास ने हमारे जीवन को पथरीले शहर में तब्दील कर दिया है ? ग्लोबल वार्मिंग ने भी एक बड़ी समस्या पैदा करती है।




क्या आज बसंत उसी रूप में हमारे सामने उपस्थित हो सकता है जिसको हम २५ साल पहले देखा करते थे? कभी बसंत को प्रकृति के रंग बिरंगे फूलों, खेतों में फूली सरसों और बागों में बैराए आमों की वजह से पहचाना जाता था, लेकिन अब? बसंत के जितने प्रतीक थे, वे सब नजरों से ओझल होते जा रहे हैं। बंद मकानों और जीवनशैली में प्रयोग आने वाले उपकरणों ने हमारे जीवन को नीरस बना दिया है। घर के अंदर बाहर ना बसंत की वह ऊष्मा दिखाई देती है और ना वह मस्ती। यहां ना गर्मी का पता चलता है और ना सर्दी का। एक कोलाहल ने बसंत के संगीत से भी हमें बहुत दूर खड़ा कर दिया है। ना कोयल की कुहू कुहू सुनाई देती है और ना भंवरों की गुंजन। ऐसे में प्रकृति के इस बदलते रूप को पहचानना, उसकी अनुभूति करना और उसका आनंद लेना कितना मुश्किल हो गया है। अजीब बात है कि मौसम अपने स्वाभाविक रूप में कहीं नजर ही नहीं आता। यह परिवेश, यह वातावरण जीवन का एक हिस्सा ना होकर जीने का व्यवसायिक उपक्रम सा लगता है। व्यवसायीकरण ने मानवीय संबंधों को ही नहीं, प्रकृति के संपूर्ण अस्तित्व को खतरे में डाल दिया है। मानवीय संवेदना बदलते मौसम के साथ जो तादाम्य स्थापित करती थी, वह गायब है।

ज्ञानात्मक अनुभूति की ताकत चुकती जा रही है। सौंदर्य को समझने का पहले जैसा चाव अब नहीं रहा। सब कुछ रीता रीता सा लगता है। बसंत के मौसम को समझने और उसे आत्मसात करने और फिर उसे व्यक्त करने की जो दृष्टि कालिदास और सुमित्रानंदन पंत के पास थी, वह शायद ही किसी को नसीब हो, क्योंकि प्रकृति को देखने का हमारा अब वह नजरिया ही नहीं रहा।

आता रहे बसंत, किसे चिंता है? आपके द्वार पर बसंती हवा दस्तक दे रही है, मगर दिलों में हलचल भी नहीं होती। बसंत की गुनगुनी धूप बाहर खड़ी आपका इंतजार कर रही है और पता भी नहीं चलता। ऐसे में कहना पड़ता है कि, ओ बसंत ! तुम कहां हो ? तुम अपनी ऊष्मा में हमें भिगोते क्यों नहीं?



बाहर सचमुच धूप खिली है। विश्वास है कि बसंत भी यहीं कहीं होगा। मुझे आज बौर की एक टहनी और फूली हुई सरसों की तलाश है।


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3 Comments

  1. Really appreciated !
    Thanks for making us realize ,that what are we loosing day by day in our life.

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  2. Darvesh ਸਿੰਘ ☬February 5, 2022 at 1:28 AM

    ठंडे होते जा रहे रिश्ते, जडों की तलाश, विकास की प्रक्रिया में खो गई निर्मम और निस्संग स्थितियों से प्रतिकार करती कहानियां अनिवार्य रूप से पठनीय हैं।

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    1. आपके कमेंट के लिए आपका आभार।

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